Wednesday, 2 August 2017

★【पंथ श्री हजुर 1008 अर्धनाम साहेब】★ 【धर्मदासीय नादवंश आचार्य कबीरपंथ

जय जय सत्य कबीर |

                सत्यनाम सत सुकृत; सत रत सत कामी | 
             विगत कलेश सत धामी, त्रिभुवन पति स्वामी ||टेक ||
       जयति जय कव्विरम्, नाशक भव भिरम् |
            धरयो मनुज शरीरम्, शिशु वर सरतीरम् || जय २||
             कमल पत्र पर शोभित, शोभाजित कैसे |
        नीलांचल पर राजित, मुक्तामणि जैसे || जय २||
             परम मनोहर रूपम्, प्रमुदित सुखरासी |
       अति अभिनव अविनाशी, काशी पुर वासी || जय २||
          हंस उबारन कारन, प्रगटे तन धारी |
       पारख रूप विहारी, अविचल अधिकारी || जय २||
    साहेब कबीर की आरति, अगनित अघहारी |
        धर्मंदास बलिहारी, मुद मंगल कारी || जय २||

जय जय श्री गुरुदेव |

                    पारख रूप कृपालं, मुदमय त्रैकालम् | 
            मानस साधु मरालम्, नाशक भव जालम् || जय २||
            कुंद इंदु वर सुन्दर, संतन हितकारी |
           शांताकार शरीरम्, श्वेताम्बर धारी || जय २||
           शुभ्र मुकुट चक्रांकित, मस्तक पर सोहै |
      विमल तिलक युत भृकुटी, लखी मुनिमन मोहै || जय २||
       हीरामणि मुक्तादिक, भूषित उर देशम् |
    पद्मासन सिंहासन, स्थित मंगल वेषम् || जय २||
        तरुण अरुण कज्जांघ्री, त्रिभुवन वश करि | 
     तम अज्ञान प्रहारी, नख धूति अति भारी || जय २||
           सत्य कबीर की आरती, जो कोई गावै |
  मुक्ति पदारथ पावै, भव में नहीं आवै || जय २||

मंगल रूप आरती साजे |

               अभय निशान ज्ञान धुन गाजे || टेक ||
      अछय विरछ जाकी अंमर छाया | प्रेम प्रताप अमृत फल पाया ||
     निशि वासर जहाँ पूरण चंदा | परम पुरूष तहं करत अनंदा ||
     तन मन धन जिन अर्पण कीन्हा | परम पुरुष  परमातम चिन्हा|| 
     जरा मरण की संशय मेटो | सुरति सन्तायन सतगुरू भेटो  ||
       कहें कबीर हिरम्बर होई  | निरखि नाम निज चिन्हे सोई|| 

संझा आरती

       संझा आरती करो बिचारी  | काल दूत जम रहे झखमारी || 
         खुलगइ सुषमन कुंचीतारा | अनहद शब्द उठे झनकारा ||
      सूरत निरत दोय उल टिस मावै | मकर तार जिहिं डोर लगावै ||
    उन मुन शब्द अगम घर होई | अचाह कँवल में रहे समोई ||
   वीगसित कमल होय परगासा | आरती गावै कबीर धर्मदासा ||

संझा आरती

  संझाआरति सुकृति संजोई | चरण कमल चित राखु समोई ||
  तिर गुण तेल तत्व की बाती | ज्योति प्रकाश भरे दिनराती ||
    शुन्य शिखर पर झाझर बाजे | महापुरुष घर राज बिराजे ||
    शब्द स्वरूपी आप विराजे | दर्शन होत सकल भ्रम भाजे ||
   प्रेम प्रीति कै सेवा लावै | गुरुगम हो परम पद पावै ||
   सुख अनंद है आरति गावै | कहें कबीर सतलोक सिधावै ||

             

रहना नहीं देश

विराना है

....

यह संसार कागद की पुड़िया, बूंद पड़े घुल जाना है | रहना नहीं देश विराना है....
यह संसार काँटों की बाड़ी, उलझ उलझ मर जाना है | रहना नहीं देश विराना है....
यह संसार झाड़ और झांकर, आग लगी बरी जाना है | रहना नहीं देश विराना है....
कहत कबीर सुनो भाई साधु, सतगुरू नाम ठिकाना है | 

मन लागो मेरो

यार फकीरी में

...

मन लागो मेरो यार फकीरी में || टेक ||
जो सुख पायो नाम भजन में, सो सुख नहीं अमीरी में|भला-बुरा सबकी सुन लीजे, कर गुजरान गरीबी में|मन लागो...प्रेम नगर में रहनि हमारी, भली बनी आई सबुरी में|हाथ में कुण्डी, बगल में सोटा, चारों दिशा जागीरी में|आखिर तन ये खाक मिलेगा, कहा फिरत मगरुरी में|मन लागो...कहत कबीर सुनो भाई साधो, साहिब मिले सबुरी में|मन लागो..

घूँघट के पट खोल रे, तोहे पिया मिलेंगे |

घट-घट रमता राम रमैया, कटुक वचन मत बोल रे | तोहे पिया... 
रंग महल में दीप बरत है, आसन से मत डोल रे | तोहे पिया...
कहत कबीर सुनो भाई साधु, अनहद बाजत ढोल रे |  घूँघट
...
रमैनी  -  सात गुरु की ||
गुरु गुरु कहत सकल संसारा | गुरु सोई जिन तत्व विचारा ||१||प्रथम गुरु है माता पिता | रज विरज  के जो हैं दाता ||२||
दुसर गुरु है मनसा दाई | गर्भवास को बंध छुड़ाई ||३||
तीसर गुरु जिन धरिया नामा | ले ले नाम पुकारे गामा ||४||
चौथे गुरु जिन दीक्छा दिन्हां | जग व्यवहार रीति सब किन्हां ||५||पांचे गुरु जिन वैष्णव कीन्हा | रामनाम को सुमिरण दीन्हा ||६||
छठे गुरु जिन भ्रम गढ तो���़ा | दुविधा मेटी एक सों  जोड़ा ||७||सातम गुरु सत शब्द लखाया | जहाँ का तत ले तहां समाया ||८||
साखी : सात गुरु संसार में, सेवक सब संसार |
सतगुरू सोई जानिये, भव जल तारे पार ||

रमैनी  - गुरु की ||
गुरु सम दाता कोई नहिं भाई | मुक्ति मार्ग दियो बताई || 
गुरु बिन हिरदय ज्ञान न आवे | ज्यों कस्तूरी मिरग भुलावे || 
गुरु बिन मिटै न अपनों आपा | भरम जेवरी बांध्यो साँपा ||
गरु बिन केहरी कूपहिं पडिया | गुरु बिन गज छायहिं लडिया ||
गुरु बिन स्वान  देखि बहु भेखा | मंदिर एक कांच को देखा ||
चहूँ दिसि दिखै अपनी छाया  | भूंकत भूंकत प्राण गंवाया ||
गुरु बिन मुवा नलनी सो बांधा | गुरु बिन कपि पडो सो फन्दा ||
कहैं कबीर भरम्यो संसारा | गुरु बिन सतगुरू किम उतरै पारा ||
​साखी :
भरम जेवरी गज बांध्यो, फिर जन्मे मर जाय |
कहैं कबीर सतगुरू मिले, ता सतलोक सीधाय ||
रमैनी  -  गुरु महिमा ||
सतगुरू बोलै अमृत वाणी | गुरु बिन मुक्ति नहीं रे प्राणी || 
गुरु है आदि अंत के दाता | गुरु है मुक्ति पदारथ भ्राता ||
गुरु गंगा काशी अस्थाना | चारी वेद गुरु गमते जाना ||
गुरु है सुर सरि निर्मल धारा | बिनु गुरु घटना हो उजियारा ||
अडसठ तीरथ भ्रमी भ्रमी आवे | गुरु की दया घर बैठहिं पावे ||
गुरु कहे सोई पुन करिए | मातु पिता दोउ कुल तरिये ||
गुरु पारस पर से नर लोई | लोह ते कंचन होय सोई ||
शुक देव गुरु जनक बिदेही | वो भी गुरु के परम सनेही ||
नारद गुरु प्रल्हाद पठाए | भक्ति हेतु जिन दर्शन पाए ||
​काग भुसुंड शम्भू गुरु कीन्हा | अगम निगम सब हि कही दीन्हा ||
ब्रह्मा गुरु अग्नि को कीन्हा | होम यज्ञ जिन आज्ञा दीन्हा ||
वशिष्ठ गुरु किया रघुनाथा | पाई दरस तब भये सनाथा ||
कृष्णा गए तब दुर्वासा शरना | पाई भक्ति तब तरन तरना ||
नारद दीक्छा धीमर सो पायो | चौरासी सो तुरंत छुडायो ||
गुरु कहै सोई है सांचा | बिनु परिचय सेवक है कांचा ||
कहै कबीर गुरु आपु अकेला | दश औतार गुरु का चेला ||
साखी : 
​राम कृष्ण ते को बड़ा, उनहू तो गुरु किन |
तीन लोक के वे धनी, गुरु के आगे आधीन ||


रमैनी  -  गुरु महिमा ||
गुरु मिले तो सत्य लखावे | बिन गुरु अंत न कोई पाए ||
जिन गुरु की किन्ही परतीती | एक नाम कर भव जल जीत ||१||
गुरु प्रेम ते जीव मराला | गुरु स्नेह बिन काग कराला ||
गुरु दया शब्द हमारा | गुरु परगट, गुरु गुप्त अधारा||२||
गुरु पृथ्वी, गुरु पवन अकाशा | गुरु जल थल महँ कींन निवासा ||
चन्द सूर गुरु सब संसारा | गुरु बिन होय न कोई व्यवहारा ||३||
गुरु ब्रह्मा, विष्णु  औ  महेशा | गुरु भगवान कुर्म औ शेशा ||
चर-अचर जहाँ लगी सब देखा | गुरु बिन कछु और नहीं पेखा ||४||
उत्तम मध्यम और कनिष्ठा | ये सब कीन्हे गुरु बरिष्ठा ||
ये सब जीव गुरू मय जानो | गुरु से भिन्न और नहीं मानो ||५||
गुप्त प्रगट सब ही जग जाया | सबहीं में है सतगुरू की छाया ||
कहें कबीर सो हंस पियारा | यही भांति ते गुरु दरस निहारा ||६||
साखी :
​सो गुरु निसदिन वंदिए, जासो पइये नाम |
नाम बिना घट अंध है, ज्यों दीपक बिन धाम ||


रमैनी  -  गुरु टेक की ||
जाको टेक एक गुरु दाता | ताको कछु और न सुहाता || 
पय  जो बिगड़ा माखन होई | बिगड़े छांछ कहै नहिं कोई || 
पतिव्रता को लांछन होई | गणिका बिगडे  कहत न कोई ||
सूरा भागा आप विगोई | कायर भागा कहै न कोई ||
नटनी नाचे आपा खोई | देखन हार पडै नहिं कोई ||
भुला मन को जो समुझावे | आदि अंत सोई संत कहावे ||
कहै कबीर हम एता कहिया | सांच माने सो नरकहिं गईया ||
साखी : डाल की चुकी बांदरी, शब्द का चूका हंस |
कहें कबीर धर्मदास सो, दोउ निरफल वंस ||

“सत्य”

सत्य के  रहस्य को समझने के लिए निम्नाकित प्रकरण को समझना एवं मार्ग-दर्शन लेना आवश्यक है : 
1.      संसार
2.      धर्म
3.      जीव
4.      कर्म और कर्ता
5.      विवेक
6.      सत्संग
7.      मन-शक्ति इन्द्रियां
8.      प्रेम
9.      त्याग
10.    संतोष सुख
11.    अहिंसा
12.    मृदु व्यवहार 
13.    समत्व ज्ञान
14.    मार्ग दर्शन
15.    सत्य
16.    अमरत्व
17.    सहज समाधी
18.    साधना-शान्ति
19.    देश सेवा भाव
20.    आत्मज्ञान
21.    परमात्मवाद

“सत्य”

जैसे का तैसा, सदा-‘सत्य’, जो बनता है, वह, नश्वर है,
जैसे, शब्दों, में व्यंजन है, व्यंजन में, व्याप्त, सदा स्वर है |
है वाक्य, शब्द से संयोजित, व्यंजन ने, स्वर से नियम लिया,
स्वर गुप्त रूप से व्यंजन में,-मिल, शब्द, वाक्य को, व्यक्त किया |
जो, रहकर भी हो स्पस्ट नहीं, पर, होता वह आधार वहीं,
साकार, कहीं, है निराकार, सब बिखर जाएँ, यदि, ‘सार’ नहीं |
यों, जो ‘सत् है’ जल, थल, नभ में, अस्तित्व गुप्त दे, नियमन है,
यह, बिना मार्ग-दर्शन, ‘रहस्य’, अनबूझ निरंकुश-जीवन है |...


“प्रेम”

चल प्रेम-राह, पा आत्म द्वार, जो गुरु मत भवन, प्रविष्ट किया,
औरों को सुख दे, शांत किया, निज अपने में, सत-युक्त जिया |
हो पवन प्रेम, अपावन से, पावन ही,  भेद, नहीं रखता,  
सम्पूर्ण विश्व, एवं निज में, यह ‘पावन प्रेम’, अमर बनता |
मति, स्वंय प्रकाशक,-‘महा-आत्म’, ‘सत्यार्थ-प्रेम’ ही निश्छल, है,
हो महाबली, ज्ञानी, ध्यानी, तज प्रेम, निराश्रित-निर्बल है |
‘सांसारिक-प्रेम’ भिखारी है, अन्यों से, प्रेम मांग करता,
हो, नहीं अपेछा, अन्य प्रेम, ‘जन-हित-स्वाभाव’, केवल रखता |
अन्योक्ति परे, है, ‘निरत-प्रेम’ इसकी पहिचान, हमें करना,
जीवन-स्वातंत्र्य, सुखद जीकर, फिर सुखद मृत्यु ले, भव तरना.....

  1. “संसार”
सार रतन धन बांध ले, माटी है संसार, कबीरा फीका जानकर, नेह तजा घर बार | हो त्रस्त, ताप, दैहिक-भौतिक, या दैविक, ‘सोच’! ‘करे  अब क्या’? दिनचर्या घिसट बिताता, जब, कुछ को विरक्ति, दे जोश नया | क्षण-क्षण कर, श्वास, ख़त्म पर है, तैयारी है, सब छोड़ चलें, पछतावा छोड़, करें क्या कुछ, हिम्मत हो कहाँ! ‘स्वयं-मत’, लें | जब, लपटें-आग, भवन घेरीं, तब, कुआँ खोदने को, कहना, “जल खीच, बुझा दे अग्नि”, कहैं, है बचकानी, उपाय करना | गुरु-मुख-वाणी, संस्कार बुद्धि,-दें सिख, पिता माँ, बचपन में, ‘सच बोले तौल’ करे, ‘सच’, ही, यह ज्ञान, प्रबल हो, यौवन में | सत, शील, अहिंसा, दया, क्षमा, पक्के तत्वों से, सुरति सजी, ‘स्वज्ञान’, स्वरुप-विभूषित हो’-मय ‘सहज’, ‘सरलता’, चित उपजी | हों सभी अवस्था, समानस्थ, ‘गम-ख़ुशी-अछुता’, तन मन हो, हर श्वास, जाप-अजपा उसका, हर दृष्टि-मध्य, वह सज्जन हो |‘सांसारिक-जीवन-गति’, ‘विस्मृति’, कितनी बीती! कुछ याद नहीं, हर श्वाँस खीचता, मृत्यु ओर, ह���क्षण, ना समझे, ग़लत, सहीं | जो, ‘मूल्य’ जानता, श्वास- एक, वैभव-त्रिलोक से उत्तम  है, हो कर सचेत, निज को परखे, वह पूज्य महान, महत्तम  है .......

कबीरपंथ तीर्थस्थल

काशी/वाराणसी (बनारस)
“सद्गुरु कबीर प्राकट्य स्मारक”  : वाराणसी (उ.प्र.) में  सद्गुरु कबीर साहेब का प्राकट्य स्थल लहरतारा तालाब, जो कीचड़-पानी से भरा था, जहाँ स्मारक व भवन बनाना सहज न था | तब, स्मारक को सृदृढ़ स्थिति में लाने के लिये, 26 फुट गहराई से, चौड़ी नीव को उठाया गया और उसके उपर भवन निर्माण का कार्य सुचारू रूप से प्रारंभ किया गया | इस महान कर्मयज्ञ में देश- विदेश के अनेकानेक संत, भक्त एवं अनुयायियों ने भाग लेकर, यथाशक्ति निज तन-मन-धन से अपना संपूर्ण योगदान दिया |  जो “सद्गुरु कबीर प्राकट्य स्मारक” के नाम से जाना जाता है |    इससे बहुत लोग प्रभावित होते हैं और इसके दर्शन से स्वंय को कृतार्थ करते हैं | इस धर्म स्थल पर प्रति वर्ष ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी –त्रयोदशी एवं चतुर्दशी को कबीर जयंती महोत्सव, हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है | इस शुभ अवसर पर विराट संत-समागम का सुआयोजन होता है, जिसमे अनेक संत-महंत तथा सुविज्ञ महापुरुष उत्साहपूर्वक भाग लेते है | इसमें असंख्य श्रद्धालु सेवक-भक्त यहाँ आकर सद्गुरू कबीर साहेब की शब्द-वाणियों और संतो के सत्संग-प्रवचन, भजन-वाणी, सात्विक यज्ञ – चौका आरती  का लाभ

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